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यद्दे॒वापि॒: शंत॑नवे पु॒रोहि॑तो हो॒त्राय॑ वृ॒तः कृ॒पय॒न्नदी॑धेत् । दे॒व॒श्रुतं॑ वृष्टि॒वनिं॒ ररा॑णो॒ बृह॒स्पति॒र्वाच॑मस्मा अयच्छत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad devāpiḥ śaṁtanave purohito hotrāya vṛtaḥ kṛpayann adīdhet | devaśrutaṁ vṛṣṭivaniṁ rarāṇo bṛhaspatir vācam asmā ayacchat ||

पद पाठ

यत् । दे॒वऽआ॑पिः । शम्ऽत॑नवे । पु॒रःऽहि॑तः । हो॒त्राय॑ । वृ॒तः । कृ॒पय॑न् । अदी॑धेत् । दे॒व॒ऽश्रुत॑म् । वृ॒ष्टि॒ऽवनि॑म् । ररा॑णः । बृह॒स्पतिः॑ । वाच॑म् । अ॒स्मै॒ । अ॒य॒च्छ॒त् ॥ १०.९८.७

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:98» मन्त्र:7 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:13» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:7


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जिससे कि (देवापिः) देवों की प्राप्ति या सङ्गति के द्वारा विद्वान् पुरोहित या विद्युत्-अग्नि (शन्तनवे) प्राणिमात्र के कल्याणचिन्तक अन्नभोगाधिकारी जन के लिए या कल्याणविस्तारक भौमोष्मा के लिए (होत्राय) होत्रार्थ-वृष्टियज्ञार्थ (पुरोहितः) पुरोहितरूप (वृतः) स्वीकृत किया हुआ (कृपयन्) कृपा करता हुआ या दया करता हुआ जैसा (अदीधेत्) ध्यान करता है या ध्यान करता हुआ सा (देवश्रुतम्) देव इसकी सुनते हैं, उस (वृष्टिवनिम्) वृष्टि की याचना करते हुए या वृष्टिसेवन करते हुए भौमोष्मा को (बृहस्पतिः) बृहस्पति या स्तनयित्नु (रराणः) ज्ञान देता हुआ या वृष्टि देता हुआ-वृष्टि देने के हेतु (अस्मै) इस पुरोहित के लिए या स्तनयित्नु के लिए (वाचम्) वृष्टिविज्ञानविषयक वाणी को या गर्जनारूप वाणी को (अयच्छत्) देता है, यह आलङ्कारिक वर्णन हुआ ॥७॥
भावार्थभाषाः - पुरोहित वृष्टिविज्ञानवेत्ता जन राष्ट्र में-प्राणिमात्र के कल्याणचिन्तक अन्नभोगाधिकारी मनुष्य के लिये वृष्टियज्ञ के निमित्त पुरोहित बनकर वृष्टिविषयक ज्ञान करता है, उस ऐसे वृष्टि चाहनेवाले को परमात्मा वृष्टिज्ञान देने के हेतु वृष्टिविज्ञानविषयक वाणी को देता है-दिया है, उससे वृष्टि का लाभ लेना चाहिये एवं विद्युत् अग्नि भौमोष्मा, जो अन्न देनेवाला है, उसका पूर्ववर्ती बन जाता है, तो उसे स्तनयित्नु आकाशीय देवता गर्जनारूप वाणी देता है, वह कड़क कर नीचे वृष्टि कर देती है ॥७॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यतः (देवापिः) देवानां प्राप्त्या सङ्गत्या विद्वान् पुरोहितो विद्युदग्निर्वा (शन्तनवे) प्राणिमात्रस्य कल्याणचिन्तकायान्नभोगाधि-कारिणे जनाय कल्याणविस्तारकाय भौमोष्मणे वा (होत्राय) होत्रार्थं वृष्टियज्ञार्थं (पुरोहितः-वृतः) पुरोहितरूपेण वृतः स्वीकृतः (कृपयन्) कृपां कुर्वन्-दयमान इव वा (अदीधेत्) ध्यानमकरोत्-ध्यायमान-इव जातो वा तदा (देवश्रुतं वृष्टिवनिम्) देवाः शृण्वन्त्येनं तं वृष्टियाचिनं वृष्टिसेविनं भौमोष्माणं वा (बृहस्पतिः-रराणः) परमात्मा ज्ञानं प्रयच्छन् यद्वा स्तनयित्नुर्वृष्टिं ददत् सन् “ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपति…वर्षमिषवः” [अथर्व० ३।२७।६] (अस्मै वाचम्-अयच्छत्) अस्मै पुरोहिताय “वृष्टिविज्ञानविषयिकां वाचं गर्जनारूपं वाचं वा प्रयच्छति” इत्यालङ्कारिकं वर्णनमस्ति ॥७॥